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आ स॒त्यो या॑तु म॒घवाँ॑ ऋजी॒षी द्रव॑न्त्वस्य॒ हर॑य॒ उप॑ नः। तस्मा॒ इदन्धः॑ सुषुमा सु॒दक्ष॑मि॒हाभि॑पि॒त्वं क॑रते गृणा॒नः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā satyo yātu maghavām̐ ṛjīṣī dravantv asya haraya upa naḥ | tasmā id andhaḥ suṣumā sudakṣam ihābhipitvaṁ karate gṛṇānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। स॒त्यः। या॒तु॒। म॒घऽवा॑न्। ऋ॒जी॒षी। द्रव॑न्तु। अ॒स्य॒। हर॑यः। उप॑। नः॒। तस्मै॑। इत्। अन्धः॑। सु॒सु॒म॒। सु॒ऽदक्ष॑म्। इ॒ह। अ॒भि॒ऽपि॒त्वम्। क॒र॒ते॒। गृ॒णा॒नः ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:16» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब इक्कीस ऋचावाले सोलहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (इह) इस राज्य में (गृणानः) प्रशंसा करता हुआ (अभिपित्वम्) प्राप्त (सुदक्षम्) श्रेष्ठ बल को (करते) करे (तस्मै) उसके लिये (इत्) ही हम लोग (अन्धः) अन्न आदि को (सुषुम) उत्पन्न करें, जिस (अस्य) इस राजा के (हरयः) मनुष्य नहीं (द्रवन्तु) जावें, वह (ऋजीषी) सरलनीतिवाला (सत्यः) श्रेष्ठों में साधु और (मघवान्) बहुत श्रेष्ठ धन से युक्त जन (नः) हम लोगों के (उप) समीप (आ) सब प्रकार (यातु) प्राप्त होवे ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो राजा हम लोगों के बल को बढ़ावे और नीति से प्रजाओं का पालन करे और जिस राजा के पुरुष भी धार्मिक और प्रजा के पालन में प्रिय हों और हम लोगों को प्रेम से संयुक्त करें, उसके लिये हम लोग ऐश्वर्य्य की वृद्धि करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्रपदवाच्यराजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! य इह गृणानोऽभिपित्वं सुदक्षं करते तस्मा इदेव वयमन्धः सुषुम। यस्यास्य हरयो न द्रवन्तु स ऋजीषी सत्यो मघवान्नोऽस्मानुपायातु ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (सत्यः) सत्सु साधुः (यातु) आगच्छतु (मघवान्) बहुपूजितधनयुक्तः (ऋजीषी) ऋजुनीतिः (द्रवन्तु) गच्छन्तु (अस्य) राज्ञः (हरयः) मनुष्याः। हरय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (उप) (नः) अस्मान् (तस्मै) (इत्) (अन्धः) अन्नादिकम् (सुषुम) निष्पादयेम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुदक्षम्) सुष्ठुबलम्। (इह) अस्मिन् राज्ये (अभिपित्वम्) प्राप्तम् (करते) कुर्य्यात् (गृणानः) प्रशंसन् ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यो राजाऽस्माकं बलं वर्धयेन्नीत्या प्रजाः पालयेद्यस्य पुरुषा अपि धार्मिकाः प्रजापालनप्रियाः स्युरस्मान् प्रेम्णा संयुञ्जीरँस्तदर्थं वयमैश्वर्य्यमुन्नयेम ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र, राजा, मंत्री व विद्वान यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो राजा आमचे बल वाढवितो व नीतीने प्रजेचे पालन करतो व ज्या राजाचे पुरुषही धार्मिक व प्रजेचे पालन करण्यात तत्पर असतील व आम्हाला प्रेमाने संयुक्त करतील तर त्याच्यासाठी आम्ही ऐश्वर्याची वृद्धी करावी. ॥ १ ॥